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माता का मुझको कृष्णा कहना
भाता भ्राता का जलन सहना
उन कोमल कर का स्निग्ध नहान”
पिता संग बैठ वह गीता ज्ञान
उन क्षण क्षण मैं जीवन हर्षित
अब करता मुझ को आकर्षित
वह लोरी कहां वह गीत कहां
वह रात्रि कहां वह प्रीत कहां

शायद खोजू उसे मन मन
कहां गया खोया बचपन

जब-जब देख मेरा कटु क्रंदन
थपथपा दादी का कथा गदन
बनता था जिसमें मैं नायक
उत्साह भरता फिर द्युति चमक
मैं उछल-उछल फिर फुदक फुदक
वह गोद का सुख मानो कंदक
मुख असीम आभा होती नत
दुख से बन अजनबी सुख में रत

शायद खोजू उसे क्षण क्षण
कहां गया खोया बचपन

उदित बाल सूरज समतुल्य
मनभावन अनमोल अतुल्य
नव जन्मित चंचल खग जैसा
इतने बरस कहां कब कैसा
आत्मस्थ तू विदित मुझे है
लुक्का छिपी क्या प्रिय तुझे है
कभी ना कभी तो होगा प्रकट
अब देख तू यह मेरा अचल हठ

जब देखूं बच्चों को मस्त मगन
उसमें ही जी लेता अपना बचपन
हां शायद यही है मेरा खोया बचपन
हां यही है मेरा खोया बचपन

-साहिल

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