कभी-कभी मैं खुद को एक नाव में पाता हूँ
नाव ,जो कि किनारे से कोसों दूर है
नाव,जो “काली” अंधेरी रात में बस कहीं बढ़ती जाती है
नाव,जो समुद्र के वेग से हिचकोले खाती है ….एक ऐसी नाव
उन तन्हाइयों में, उन गहराइयों में मैं कहीं खुद को पाता हूँ
उस नाविक का बिंब अपने आप में देखता हूँ
सागर उफ़ान पर हैं ,ज़ोर की हवाएँ हैं
प्रकृति की इस विकरालता ने उस रात सफ़र को और मुश्किल बना दिया है
अपने वर्तमान के बारे में सोचने पर मजबूर कर दिया है
किसी अज्ञात भय ने मुझमें भी एक अनचाहा-सा घर बना ही लिया है
पर पता नहीं क्यूँ? फिर भी यह कारवां चल रहा है
हर पल किसी नई दिशा की ओर मुड़ रहा है
वैसे इस अंधेरे से मुझे गुरेज नहीं है
शायद, यही उसके लिए प्रेरणा है
प्रेरणा ,कि “कोई” आगे है
प्रेरणा, जो हर पल आशा का संचार तो करती है
प्रेरणा, जो उसे कहीं तो पहुँचाती है ……
– Mukul Mishra (2nd year, Maths)