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माँ की लाडली, पापा की गुड़िया

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माँ की लाडली,
पापा की गुड़िया….
बड़ी होने लगी थी,
मासूमियत खोने लगी थी….
पर थी तो बच्ची ही ना..
हाँ थी वो ग़लत
पर गुनेहगार ना थी,
उम्र ही एसी थी उसकी पर वो बेकार ना थी….
प्यार पाती तो समझ जाती….
इतनी हैवानियत की भी हक़दार ना थी….
उन्ही लोगो ने हक़ छीन लिया जीने का,
जो कभी उसे पाने को,
अपनी गोद मे खिलाने को बेकरार थे….
मंदिर, मस्जिद
हर जगह तो माँगा करते थे
इस नन्ही जान को….
ले ली उसी की जान,
मिटा दिया उसी का वजूद….
क्या गुनाह ये था की वो लड़की थी
जो उसने किया नही कर सकती थी,
सोचने को हर औरत, हर नवयुवती
आज फिर एक बार मजबूर है….
अगर “आरुशि” ना होती “आरूश” होता….
क्या तब भी ये
आज के माता-पिता
इसी तरह दफ़ना देते अपनी औलाद के लिए अपना प्यार,
मिटा डालते उसका भी वजूद…
और कर देते जीवनदाता के रिश्ते को शर्मसार?

© Abhilasha

(English Honors, 2nd Year)

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